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महावीर प्रसाद द्विवेदी - जीवन परिचय, कृतियां और भाषा शैली |

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी जी हिन्दी के महान साहित्यकार, पत्रकार एवं युगप्रवर्तक थे। उन्होंने हिंदी साहित्य की अविस्मरणीय सेवा की और अपने युग की साहित्यिक और सांस्कृतिक चेतना को दिशा और दृष्टि प्रदान की। उनके इस अतुलनीय योगदान के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य का दूसरा युग 'द्विवेदी युग' (1900–1920) के नाम से जाना जाता है।

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    महावीर प्रसाद द्विवेदी का जीवन-परिचय

    आचार्य महावीर प्रसार त्रिवेदी का जन्म 15 मई 1864 ई. में रायबरेली जिले के दौलतपुर ग्राम में एक कान्यकुब्ज परिवार में हुआ था। आपके पिता का नाम पं. रामसहाय द्विवेदी था। परिवार की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उनकी शिक्षा सुचारू रूप से न हो  किन्तु उन्होंने स्वाध्याय के बल पर ही संस्कृत, अंग्रेजी, बंगला, मराठी, गुजराती, फारसी भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया। द्विवेदी जी ने रेल विभाग में नौकरी की, किन्तु किसी बात पर रुष्ट होकर उन्होंने रेलवे की अच्छे वेतन वाली नौकरी छोड़ दी और वहां से त्यागपत्र देकर 'सरस्वती' पत्रिका के सम्पादन का भार सन् 1903 ई. में सम्भाल लिया। अपनी अद्भुत प्रतिभा, साहित्यिक सूझबूझ, परिश्रमशीलता एवं व्यावहारिक कुशलता से उन्होंने इस पत्रिका को हिन्दी की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका बना दिया।

    द्विवेदी जी ने एक ओर तो हिन्दी भाषा का संस्कार परिमार्जन किया दसरी ओर उसे व्याकरण सम्मत रूप प्रदान किया। कवियों और लेखकों की भलों की ओर इंगित कर उन्हें शद हिन्दी में परिचत कराया। सन् 1931 ई. में काशी नागरी प्रचारिणी सभा ने उन्हें 'आचार्य' की उपाधि से विभूषित किया तथा हिन्दी साहित्य सम्मेलन प्रयाग ने उन्हें 'वाचस्पति' की उपाधि प्रदान की। इस महान हिन्दी सेवी का निधन 1934 ई. में हुआ।

    आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी हिन्दी साहित्य में एक नवीन युग के प्रवर्तक थे जिसे उनके नाम पर द्विवेदी युग' की संज्ञा दी गई है। उन्होंने सत्रह वर्ष तक हिन्दी की प्रसिद्ध पत्रिका सरस्वती का सम्पादन किया। सरस्वती पत्रिका का सम्पादन करते हुए उन्होंने हिन्दी की महान सेवा की और हिन्दी को अनेक नए कवि और निबन्धकार प्रदान किए। हिन्दी भाषा को सुव्यवस्थित करने और उसका व्याकरण । सम्मत स्वरूप निर्धारित करने में उनकी विशेष भूमिका रही है। हिन्दी गद्य में छाई हुई अराजकता को दूर कर में भी द्विवेदी जी ने अपना योगदान दिया। ब्रजभाषा के स्थान पर खड़ी बोली हिन्दी को काव्य भाषा के रूप में प्रतिष्ठित करने का श्रेय भी द्विवेदी जी को प्राप्त है।

    द्विवेदी जी की कृतियां:-

    द्विवेदी जी ने 50 से अधिक ग्रन्थों की रचना की हैं। यहां उनकी प्रमुख कृतियों का विवरण प्रस्तुत है :

    काव्य संग्रह - (1) काव्य मंजूषा, (2) कविता कलाप, (3) सुमन।

    आलोचना - (1) रसज्ञ रंजन, (2) हिन्दी नवरन (3) साहित्य सीकर, 
    (4) नाट्यशास्त्र, (5) विचार-विमर्श, (6) साहित्य सन्दर्भ, 


    (7) कालिदास की निरंकशता, (8) कालिदास एवं उनकी कविता, 
    (9) साहित्यालाप, (10) विज्ञान वार्ता, (11) कोविद कीर्तन 
    (12) दुश्य दर्शन, (13) समालोचना समुच्चय, (14) नैषधचरित चर्चा, 
    (15) कौटिल्य कुठार (16) वनिता विलास।


    अनूदित रचनाएं - (1) वेकन विचारमाला, (2) मेघदत (3) विचार रत्नावली, 
    (4) कुमारसम्भव (5) गंगालहरी, (6) किरातार्जुनीय, 
    (7) हिन्दी महाभारत, (8) रघुवंश, (9) शिक्षा, (10) स्वाधीनता, (11) विनय विनोद।

    निबन्ध - सरस्वती पत्रिका में तथा अन्य अनेक पत्रिकाओं में प्रकाशित।

    विविध - (1) जल चिकित्सा, (2) सम्पत्तिशास्त्र, (3) वक्तृत्वकला।

    सम्पादन - सरस्वती पत्रिका का सम्पादन किया। यह एक मासिक पत्रिका थी जिसके सम्पादक द्विवेदी जी सन् 1903 में नियुक्त हुए।


    भाषागत विशेषताएं:

    द्विवेदी जी के निबन्धों की भाषा विषयानुकूल है। आलोचनात्मक निबन्धों में शुद्ध परिनिष्ठित संस्कृत तत्सम शब्दावली से युक्त भाषा का प्रयोग है तो भावात्मक निबन्धों में काव्यात्मक भाषा दिखाई पड़ती है। द्विवेदी जी ने स्थान-स्थान पर संस्कृत की सूक्तियों के प्रयोग से भाषा को प्रभावशाली बनाने में सफलता प्राप्त की है।

    द्विवेदी जी मुहावरेदार भाषा का प्रयोग करने में सिद्धहस्त थे। द्विवेदी जी की भाषा में संस्कृत शब्दों की बहुलता है तथापि उर्दू एवं अंग्रेजी के प्रचलित शब्द भी उनकी भाषा में प्रयुक्त हुए हैं। उनकी भाषा में बोलचाल के शब्दों का भी प्रचुर प्रयोग हुआ है। वास्तव में वे व्यावहारिक भाषा के पक्षधर थे और ऐसी भाषा का प्रयोग करते थे जो नित्यप्रति के व्यवहार में आती हो तथा जिसे समझने में किसी को भी कठिनाई न हो।


    उनकी शैलियाँ:-

    द्विवेदी जी की शैली के मुख्यतः तीन रूप दृष्टिगत होते हैं-
    1. परिचयात्मक शैली  
    2.आलोचनात्मक शैली  
    3. विचारात्मक अथवा गवेषणात्मक शैली
    तथा अन्य
    भावात्मक शैली -, गवेषणात्मक शैली -,विचारात्मक शैली -, वर्णनात्मक शैली -, हास्य-व्यंग्य शैली -

    हिन्दी भाषा का संस्कार एवं परिष्कार करने वाले द्विवेदी जी निश्चय ही हिन्दी के महान साधक थे।  

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